संदेश

अप्रैल, 2025 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

राघव और महतु की कहानी, हिन्दी कहानी, चन्द्र कुमार

चित्र
**राघव और महतु की कहानी** *बचपन की दोस्ती, समय का इम्तिहान* एक छोटे से गाँव में दो दोस्त रहते थे — राघव और महतु। दोनों बचपन के साथी थे। मिट्टी में खेलना, तालाब में नहाना, आम के पेड़ पर चढ़ना — हर खुशी और ग़म में एक-दूसरे का साथ निभाते थे। राघव का परिवार गाँव के सबसे अमीर लोगों में से था। उसके पिता ज़मींदार थे, शहरों में भी उनका कारोबार था। वहीं महतु का परिवार गरीब था, उसका पिता मज़दूरी करता था। लेकिन इन फर्कों का कभी उनकी दोस्ती पर असर नहीं पड़ा। समय बदला। राघव शहर पढ़ने चला गया — अच्छे स्कूल, बड़ी डिग्रियाँ, और फिर विदेश में नौकरी। धीरे-धीरे उसका जीवन बदल गया। उसने कारोबार शुरू किया और सफल बिजनेसमैन बन गया। उधर महतु गाँव में ही रहा। उसने अपने पिता के साथ खेतों में काम किया, कई बार पेट काटा, लेकिन कभी ईमान और मेहनत से पीछे नहीं हटा। गाँव में लोग उसे इज्जत से देखते थे, भले ही उसकी जेब खाली हो। सालों बाद राघव एक सामाजिक प्रोजेक्ट के सिलसिले में गाँव लौटा। वो चमचमाती गाड़ी से उतरा, पीछे लोग थे, कैमरे थे, पर दिल में एक खालीपन था। गाँव की गलियों से गुज़रते हुए उसकी नज़र एक पेड़ के नीचे बैठक...

जीवन के कुछ पल, चन्द्र कुमार, कहानी

चित्र
 जीवन के कुछ पल  नदी के किनारे एक छोटा सी झोपड़ी थी, जिसमें एक प्रेमी युगल रहते थे। उनके नाम थे राजेश और राजेश्वरी। वे दोनों एक दूसरे से बेहद प्यार करते थे और हमेशा साथ में रहना चाहते थे। एक सुंदर दिन, जब सूरज अपनी पूरी चमक के साथ चमक रहा था, राजेश और राजेश्वरी नदी के किनारे बैठे थे। वे दोनों एक दूसरे की आँखों में देख रहे थे और मुस्कुरा रहे थे। राजेश राजेश्वरी का हाथ पकड़ लिया और कहा, "राजेश्वरी, तुम मेरी जिंदगी की सबसे बड़ी खुशी हो। तुम बिना मेरी जिंदगी अधूरी है।" राजेश्वरी राजेश की आँखों में देखा और कहा, "राजेश, तुम भी मेरी जिंदगी की सबसे बड़ी खुशी हो। तुम बिना मेरी जिंदगी अधूरी है।" वे दोनों एक दूसरे को देखकर मुस्कुरा रहे थे और नदी के किनारे बैठे थे। तभी एक छोटा सा पक्षी उनके पास आया और उन्हें देखकर चहचहाने लगा। राजेश और राजेश्वरी ने उस पक्षी को देखा और मुस्कुरा दिए। वे दोनों एक दूसरे के साथ खुश थे और नदी के किनारे बैठे थे, जहां वे अपने जीवन की सबसे खूबसूरत पलों का आनंद ले रहे थे। राजेश और राजेश्वरी ने अपने प्यार को एक नई दिशा दी और अपने जीवन की नई शुरुआत की। वे ...

आदिकाल / प्रकरण 2 अपभ्रंश काव्य, रामचंद्र शुक्ल

चित्र
  आदिकाल / प्रकरण 2 अपभ्रंश काव्य जब से प्राकृत बोलचाल की भाषा न रह गई तभी से अपभ्रंश साहित्य का आविर्भाव समझना चाहिए। पहले जैसे 'गाथा' या 'गाहा' कहने से प्राकृत का बोध होता था वैसे ही पीछे 'दोहा' या 'दूहा' कहने से अपभ्रंश या लोकप्रचलित काव्यभाषा का बोध होने लगा। इस पुरानी प्रचलित काव्यभाषा में नीति, श्रृंगार, वीर आदि की कविताएँ तो चली ही आती थीं, जैन और बौद्ध धार्माचार्य अपने मतों की रक्षा और प्रचार के लिए भी इसमें उपदेश आदि की रचना करते थे। प्राकृत से बिगड़कर जो रूप बोलचाल की भाषा ने ग्रहण किया वह भी आगे चलकर कुछ पुराना पड़ गया और काव्य रचना के लिए रूढ़ हो गया। अपभ्रंश नाम उसी समय से चला। जब तक भाषा बोलचाल में थी तब तक वह भाषा या देशभाषा ही कहलाती रही, जबवह भी साहित्य की भाषा हो गई तब उसके लिए अपभ्रंश शब्द का व्यवहार होने लगा। भरत मुनि (विक्रम तीसरी शताब्दी) ने 'अपभ्रंश' नाम न देकर लोकभाषा को 'देशभाषा' ही कहा है। वररुचि के 'प्राकृतप्रकाश' में भी अपभ्रंश का उल्लेख नहीं है। अपभ्रंश नाम पहले पहल बलभी के राजा धारसेन द्वितीय के शिलाल...

आदिकाल, प्रकरण 1 रामचंद्र शुक्ल

आदिकाल / प्रकरण 1 सामान्य परिचय दोस्तों यहां पर पिछले पांच भागों के बाद की जानकारी दी गई है, अगर आप चाहते हैं कि पिछले पांच भाग भी पढ़ें तो निम्नलिखित शीर्षक पर जाए:- महत्वपूर्ण लिंक्स  हिन्दी साहित्य का इतिहास, रामचंद्र शुक्ल, भाग 01 हिन्दी साहित्य का इतिहास, रामचंद्र शुक्ल भाग 02 हिन्दी साहित्य का इतिहास, रामचंद्र शुक्ल भाग 03 हिन्दी साहित्य का इतिहास, रामचंद्र शुक्ल भाग 04 हिन्दी साहित्य का इतिहास, रामचंद्र शुक्ल, भाग 05 प्राकृत की अंतिम अपभ्रंश अवस्था से ही हिन्दी साहित्य का आविर्भाव माना जा सकता है। उस समय जैसे 'गाथा' कहने से प्राकृत का बोध होता था वैसे ही 'दोहा' या 'दूहा' कहने से अपभ्रंश या प्रचलित काव्यभाषा का पद्म समझा जाता था। अपभ्रंश या प्राकृताभास हिन्दी के पयों का सबसे पुराना पता तांत्रिक और योगमार्गी बौध्दों की सांप्रदायिक रचनाओं के भीतर विक्रम की सातवीं शताब्दी के अंतिम चरण में लगता है। मुंज और भोज के समय (संवत् 1050) के लगभग तो ऐसी अपभ्रंश या पुरानी हिन्दी का पूरा प्रचार शुद्ध साहित्य या काव्य रचनाओं में भी पाया जाता है। अतः हिन्दी साहित्य का आदिक...

हिन्दी साहित्य का इतिहास, रामचंद्र शुक्ल, भाग 05 , काल विभाजन

चित्र
 कालक्रम दोस्तों यहां पर पिछले चार भागों के बाद की जानकारी दी गई है, अगर आप चाहते हैं कि पिछले चार भाग भी पढ़ें तो निम्नलिखित शीर्षक पर जाए:- महत्वपूर्ण लिंक्स  हिन्दी साहित्य का इतिहास, रामचंद्र शुक्ल भाग 01 हिन्दी साहित्य का इतिहास, रामचंद्र शुक्ल, भाग 02 हिन्दी साहित्य का इतिहास, रामचंद्र शुक्ल, भाग 03 हिन्दी साहित्य का इतिहास, रामचंद्र शुक्ल, भाग 04 जबकि प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिंब होता है, तब यह निश्चित है कि जनता की चित्तवृत्ति के परिवर्तन के साथ-साथ साहित्य के स्वरूप में भी परिवर्तन होता चला जाता है। आदि से अंत तक इन्हीं चित्तवृत्तियों की परंपरा को परखते हुए साहित्य परंपरा के साथ उनका सामंजस्य दिखाना ही 'साहित्य का इतिहास कहलाता है। जनता की चित्तवृत्ति बहुत कुछ राजनीतिक, सामाजिक, सांप्रदायिक तथा धार्मिक परिस्थिति के अनुसार होती है। अतः कारण स्वरूप इन परिस्थितियों का किंचित् दिग्दर्शन भी साथ ही साथ आवश्यक होता है। इस दृष्टि से हिंदी साहित्य का विवेचन करने में यह बात ध्यान में रखनी होगी कि किसी विशेष समय में लोगों में रुचिविशेष क...

हिन्दी साहित्य का इतिहास, रामचंद्र शुक्ल, भाग 04

चित्र
  हिन्दी साहित्य का इतिहास, रामचंद्र शुक्ल, भाग 04 दोस्तों यहां पर पिछले तीन भागों के बाद की जानकारी दी गई है, अगर आप चाहते हैं कि पिछले तीन भाग पढ़ें तो निम्नलिखित शीर्षक पर जाए:- महत्वपूर्ण लिंक्स  हिन्दी साहित्य का इतिहास, रामचंद्र शुक्ल, भाग 01 हिन्दी साहित्य का इतिहास, रामचंद्र शुक्ल, भाग 02 हिन्दी साहित्य का इतिहास, रामचंद्र शुक्ल, भाग 03 एक ही काल और एक ही कोटि की रचना के भीतर जहाँ भिन्न-भिन्न प्रकार की परंपराएँ चली हुई पाई गई हैं, वहाँ अलग-अलग शाखाएँ करके सामग्री का विभाग किया गया है। जैसे भक्तिकाल के भीतर पहले तो दो काव्यधाराएँ निर्गुण धारा और सगुण धाराएं निर्दिष्ट की गई हैं। फिर प्रत्येक धारा की दो-दो शाखाएँ स्पष्ट रूप से लक्षित हुई हैं निर्गुण धारा की ज्ञानाश्रयी और प्रेममार्गी (सूफी) शाखा तथा सगुण धारा की रामभक्ति और कृष्णभक्ति शाखा। इन धाराओं और शाखाओं की प्रतिष्ठा यों ही मनमाने ढंग पर नहीं की गई है। उनकी एक-दूसरे एक- से अलग करने वाली विशेषताएँ अच्छी तरह दिखाई भी गई हैं और देखते ही ध्यान में आ भी जाएँगी। रीतिकाल के भीतर रीतिबद्ध रचना की जो परंपरा चली है उसका उपविभ...

हिन्दी साहित्य का इतिहास, रामचंद्र शुक्ल, भाग 03

चित्र
हिन्दी साहित्य का इतिहास, रामचंद्र शुक्ल, भाग 03  दोस्तों यहां पर पिछले दो भागों के बाद की जानकारी दी गई है, अगर आप चाहते हैं कि पिछले दो भाग पढ़ें तो निम्नलिखित शीर्षक पर जाए:- हिन्दी साहित्य का इतिहास, रामचंद्र शुक्ल, भाग 01 हिन्दी साहित्य का इतिहास, रामचंद्र शुक्ल, भाग 02 इन्हीं बारह पुस्तकों की दृष्टि से 'आदिकाल' का लक्षण निरूपण और नामकरण हो सकता है। इनमें से अंतिम दो तथा बीसलदेव रासो को छोड़कर शेष सब ग्रंथ वीरगाथात्मक ही हैं। अतः आदिकाल का नाम 'वीरगाथा काल' ही रखा जा सकता है। जिस सामाजिक या राजनैतिक परिस्थिति की प्रेरणा से वीरगाथाओं की प्रवृत्ति रही है उसका सम्यक् निरूपण पुस्तक में कर दिया गया है। मिश्रबंधुओं ने इस 'आदिकाल' के भीतर इतनी पुस्तकों की और नामावली दी है 1. भगवत गीता 2. वृद्ध नवकार 3. वर्तमाल 4. सहमति 5. पत्तालि 6. अनन्य योग 7. जंबूस्वामी रास 8. रैवतगिरि रास 9. नेमिनाथ चउपई 10. उवएस माला (उपदेशमाला)। इनमें से नं. 1 तो पीछे की रचना है, जैसा कि उसकी इस भाषा से स्पष्ट है: तेहि दिन कथा कीन मन लाई। सुमिरौं गुरु गोविंद के पाऊँ। अगम अपार है जाकर नाऊँ हर...

हिन्दी साहित्य का इतिहास, रामचंद्र शुक्ल, भाग 02

चित्र
हिन्दी साहित्य का इतिहास, रामचंद्र शुक्ल, भाग 02  पहले कालविभाग को लीजिए। जिस कालविभाग के भीतर किसी विशेष ढंग की रचनाओं की प्रचुरता दिखाई पड़ी है, वह एक अलग काल माना गया है और उसका नामकरण उन्हीं रचनाओं के स्वरूप के अनुसार किया गया है। इसी प्रकार काल का एक निर्दिष्ट सामान्य लक्षण बनाया जा सकता है। किसी एक ढंग की रचना की प्रचुरता से अभिप्राय यह है कि दूसरे ढंग की रचनाओं में से चाहे किसी (एक) ढंग की रचना को लें वह परिमाण में प्रथम के बराबर न होगी, यह नहीं कि और सब ढंगों की रचनाएँ मिलकर भी उसके बराबर न होंगी। जैसे यदि किसी काल में पाँच ढंग की रचनाएँ 10, 5, 6, 7, और 2 के क्रम में मिलती हैं, तो जिस ढंग की रचना की 10 पुस्तकें हैं, उसकी प्रचुरता कही जाएगी, यद्यपि शेष और ढंग की सब पुस्तकें मिलकर 20 हैं। यह तो हुई पहली बात। दूसरी बात है ग्रंथों की प्रसिद्धि। किसी काल के भीतर जिस एक ही ढंग के बहुत अधिक ग्रंथ प्रसिद्ध चले आते हैं, उस ढंग की रचना उस काल के लक्षण के अंतर्गत मानी जाएगी, चाहे और दूसरे ढंग की अप्रसिद्ध और साधारण कोटि की बहुत-सी पुस्तकें भी इधर-उधर कोनों में पड़ी मिल जाया करें। प्रस...

हिन्दी साहित्य का इतिहास, रामचंद्र शुक्ल

चित्र
प्रथम संस्करण का वक्तव्य हिंदी कवियों का एक वृत्तसंग्रह ठाकुर शिवसिंह सेंगर ने सन् 1833 ई. में प्रस्तुत किया था। उसके पीछे सन् 1889 में डॉक्टर (अब सर) ग्रियर्सन ने 'मॉडर्न वर्नाक्युलर लिटरेचर ऑव नार्दर्न हिंदुस्तान' के नाम से एक वैसा ही बड़ा कविवृत्त-संग्रह निकाला। काशी की नागरीप्रचारिणी सभा का ध्यान आरंभ ही में इस बात की ओर गया कि सहस्रों हस्तलिखित हिंदी पुस्तकें देश के अनेक आगों में, राजपुस्तकालयों तथा लोगों के घरों में अज्ञात पड़ी हैं। अतः सरकार की आर्थिक सहायता से उसने सन् 1900 से पुस्तकों की खोज का काम हाथ में लिया और सन्‌ 1911 तक अपनी खोज की आठ रिपोर्टों में सैकड़ों अज्ञात कवियों तथा ज्ञात कवियों के अज्ञात संर्थों का पता लगाया। सन् 1913 में इस सारी सामग्री का उपयोग करके मिश्रबंधुओं (श्रीयुत् पं श्यामबिहारी मिश्र आदि) ने अपना बड़ा भारी कविवृत्त-संग्रह 'मिश्रबंधु विनोद', जिसमें वर्तमान काल के कवियों और लेखकों का भी समावेश किया गया है, तीन भागों में प्रकाशित किया। Go to channel इधर जब से विश्ववि‌द्यालयों में हिंदी की उच्च शिक्षा का विधान हुआ, तब से उसके साहित्य के वि...