राघव और महतु की कहानी, हिन्दी कहानी, चन्द्र कुमार

**राघव और महतु की कहानी**

*बचपन की दोस्ती, समय का इम्तिहान*

एक छोटे से गाँव में दो दोस्त रहते थे — राघव और महतु। दोनों बचपन के साथी थे। मिट्टी में खेलना, तालाब में नहाना, आम के पेड़ पर चढ़ना — हर खुशी और ग़म में एक-दूसरे का साथ निभाते थे।

राघव का परिवार गाँव के सबसे अमीर लोगों में से था। उसके पिता ज़मींदार थे, शहरों में भी उनका कारोबार था। वहीं महतु का परिवार गरीब था, उसका पिता मज़दूरी करता था। लेकिन इन फर्कों का कभी उनकी दोस्ती पर असर नहीं पड़ा।

समय बदला। राघव शहर पढ़ने चला गया — अच्छे स्कूल, बड़ी डिग्रियाँ, और फिर विदेश में नौकरी। धीरे-धीरे उसका जीवन बदल गया। उसने कारोबार शुरू किया और सफल बिजनेसमैन बन गया।

उधर महतु गाँव में ही रहा। उसने अपने पिता के साथ खेतों में काम किया, कई बार पेट काटा, लेकिन कभी ईमान और मेहनत से पीछे नहीं हटा। गाँव में लोग उसे इज्जत से देखते थे, भले ही उसकी जेब खाली हो।

सालों बाद राघव एक सामाजिक प्रोजेक्ट के सिलसिले में गाँव लौटा। वो चमचमाती गाड़ी से उतरा, पीछे लोग थे, कैमरे थे, पर दिल में एक खालीपन था।

गाँव की गलियों से गुज़रते हुए उसकी नज़र एक पेड़ के नीचे बैठकर मिट्टी में कुछ लिखते आदमी पर पड़ी — वो महतु था।

राघव कुछ पल के लिए ठिठका… और फिर वो आवाज़ निकली —

“महतु…?”

महतु ने चौंक कर देखा… और मुस्कुराया।

“राघव… तू?”

दोनों गले मिले, और ऐसा लगा जैसे बरसों का फासला उसी पल मिट गया।

राघव ने कहा, “तूने गाँव नहीं छोड़ा?”

महतु बोला, “और तूने गाँव को देखा भी नहीं इतने साल… पर दोस्ती दिल में थी हमेशा।”

राघव ने उसी वक्त फैसला किया — अब सिर्फ पैसा नहीं, रिश्ता भी निभाना है। उसने गाँव में स्कूल और अस्पताल बनवाया, और महतु को गाँव विकास योजना का प्रमुख बना दिया।

अब राघव अक्सर गाँव आता है, और जब भी आता है — महतु के घर ज़रूर चाय पीता है। वही बचपन वाली मिट्टी की खुशबू… वही दोस्ती।

यहां कुछ तस्वीरें :-

बचपन की 

स्कूल जाते समय 


**राघव और महतु की कहानी (भाग 2)**

*बचपन की दोस्ती से गाँव के भविष्य तक*

गाँव में राघव के लौटने के बाद बहुत कुछ बदल गया। उसने सिर्फ पैसे नहीं दिए, अपना समय और दिल भी लगाया। महतु उसका सबसे बड़ा सहयोगी बन गया। राघव ने जब पहली बार गाँव में स्कूल खोला, तो महतु ने खुद बच्चों को पढ़ाने का बीड़ा उठाया।

धीरे-धीरे गाँव के बच्चे अब शहरों में जाकर पढ़ने लगे। लड़कियाँ जो पहले कभी स्कूल नहीं जाती थीं, अब डॉक्टर और इंजीनियर बनने का सपना देखने लगीं।

**लेकिन असली परीक्षा तब आई जब गाँव को सूखे ने घेर लिया।**

तीन साल से बारिश ठीक से नहीं हुई थी। फसलें सूख गई थीं, तालाब खाली थे। गाँव में खाने के लाले पड़ गए। लोग धीरे-धीरे गाँव छोड़ने लगे।

राघव को जैसे ही खबर मिली, वो सारी मीटिंग्स छोड़कर गाँव आया। उसने अपनी कंपनी के इंजीनियर भेजे और महतु के साथ मिलकर एक योजना बनाई —

**जल संरक्षण योजना**

तालाब गहराए गए, नए कुएँ खुदवाए गए, और बरसात के पानी को जमा करने के लिए टैंक बनाए गए। गाँव वालों ने भी मेहनत की, और पहली बार सभी ने मिलकर काम किया — गरीब, अमीर, छोटे, बड़े सब एक साथ।

अगली बारिश जब आई, तो गाँव में पानी की कमी नहीं थी — फसलें हरी थीं, चेहरे मुस्कुराते हुए।

एक दिन गाँव में एक बड़ा मेला लगा। मंच पर राघव और महतु दोनों खड़े थे। राघव ने माइक पकड़ा और कहा:

> “मैंने बहुत कुछ पाया ज़िन्दगी में — पैसा, नाम, इज्ज़त…

> लेकिन जो मैंने इस गाँव में पाया — वो मेरी आत्मा की दौलत है।

> और महतु… ये मेरा दोस्त नहीं, मेरी ज़मीर है।“

महतु ने बस इतना कहा,

> “राघव ने कभी मुझे गरीब नहीं समझा… और मैंने कभी उसे अमीर नहीं समझा।

> हम दोनों सिर्फ दोस्त हैं — और ये दोस्ती अब गाँव की ताक़त बन चुकी है।”

**कहानी का अंत नहीं, एक नई शुरुआत थी —**

अब वो गाँव सिर्फ गाँव नहीं था, एक मिसाल था पूरे देश के लिए — कि अगर एक अमीर और एक गरीब साथ चलें, तो इतिहास बदल सकते हैं।

चलो कहानी को और आगे ले चलते हैं — अब जहां से यह प्रेरणा बन चुकी है, वहीं से एक नई चुनौती और एक और इमोशनल मोड़ आएगा:

**राघव और महतु की कहानी (भाग 3)**

एक नई चुनौती और दोस्ती की अग्निपरीक्षा

गाँव अब समृद्ध हो चला था। स्कूल, अस्पताल, खेतों में हरियाली, बच्चों में आत्मविश्वास — ये सब राघव और महतु की साझी मेहनत का नतीजा था। मीडिया भी अब इस गाँव की कहानी देशभर में दिखा रही थी। लोग इस गाँव को "दोस्तीपुर" कहने लगे थे।

एक दिन एक बड़ी कंपनी गाँव में जमीन खरीदने आई। उनके पास बड़ी रकम थी और उन्होंने गाँव के लोगों को अच्छे पैसे देने का वादा किया — लेकिन उनकी मंशा थी गाँव की खेती को खत्म कर फैक्ट्री खड़ी करना।

कुछ गाँव वाले पैसों के लालच में आ गए। वे बोले:

“राघव बाबू, अब समय बदल गया है… हमें भी अमीर बनना है।”

राघव के लिए यह बहुत मुश्किल स्थिति थी। एक तरफ गाँव वालों की आकांक्षाएं थीं, दूसरी तरफ उसकी आत्मा और महतु का विश्वास।

महतु ने साफ कहा:

“अगर ये फैक्ट्री आई, तो ज़मीन बचेगी ना रिश्ते। पेड़, मिट्टी और बच्चों का बचपन सब बिक जाएगा।” राघव चुप था।

रात भर उसने नींद नहीं ली। अगली सुबह उसने फैसला लिया — गाँव वालों की पंचायत बुलाई।

पंचायत में सब इकठ्ठा हुए। राघव खड़ा हुआ और बोला:

“मैंने ये गाँव अपने दोस्त के साथ मिलकर जिया है — बसाया है। अगर पैसा चाहिए तो मैं दूँगा, लेकिन इस मिट्टी की कीमत कोई नहीं चुका सकता।

अगर तुम सब जमीन बेचोगे, तो मैं भी अपनी ज़मीन बेच दूँगा — लेकिन किसी फैक्ट्री को नहीं, बल्कि एक और स्कूल और टेक्नोलॉजी सेंटर बनाने के लिए।

ताकि अगली पीढ़ी अमीर बने — जमीन बेचकर नहीं, ज्ञान पाकर।”

सन्नाटा छा गया।

एक बुज़ुर्ग उठे और बोले, “राघव बेटा, तूने आँखें खोल दीं। ये गाँव तेरे और महतु की दोस्ती से जिया है, इसे कोई खरीद नहीं सकता।”

गाँव वालों ने जमीन बेचने का इरादा छोड़ दिया।

कुछ महीने बाद, गाँव में एक आधुनिक टेक्नोलॉजी सेंटर खुला, जहां बच्चे अब कंप्यूटर सीखते हैं, ऑनलाइन पढ़ाई करते हैं और अपने सपने खुद गढ़ते हैं।

अंतिम दृश्य:

राघव और महतु, गाँव के तालाब किनारे बैठकर चाय पीते हैं।

महतु कहता है, “हमारे जैसा दोस्ती वाला गाँव अब हर जगह बनेगा क्या?”

राघव मुस्कुराकर कहता है,

“अगर हर गाँव में एक महतु हो… तो ज़रूर बनेगा।”

कहानी खत्म नहीं होती…

बल्कि हर उस दोस्ती में ज़िंदा रहती है जो दिल से निभाई जाती है।


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चन्द्र कुमार 

धन्यवाद 🙏 

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