हिन्दी साहित्य का इतिहास, रामचंद्र शुक्ल, भाग 04
हिन्दी साहित्य का इतिहास, रामचंद्र शुक्ल, भाग 04
दोस्तों यहां पर पिछले तीन भागों के बाद की जानकारी दी गई है, अगर आप चाहते हैं कि पिछले तीन भाग पढ़ें तो निम्नलिखित शीर्षक पर जाए:-
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एक ही काल और एक ही कोटि की रचना के भीतर जहाँ भिन्न-भिन्न प्रकार की परंपराएँ चली हुई पाई गई हैं, वहाँ अलग-अलग शाखाएँ करके सामग्री का विभाग किया गया है। जैसे भक्तिकाल के भीतर पहले तो दो काव्यधाराएँ निर्गुण धारा और सगुण धाराएं निर्दिष्ट की गई हैं। फिर प्रत्येक धारा की दो-दो शाखाएँ स्पष्ट रूप से लक्षित हुई हैं निर्गुण धारा की ज्ञानाश्रयी और प्रेममार्गी (सूफी) शाखा तथा सगुण धारा की रामभक्ति और कृष्णभक्ति शाखा। इन धाराओं और शाखाओं की प्रतिष्ठा यों ही मनमाने ढंग पर नहीं की गई है। उनकी एक-दूसरे एक- से अलग करने वाली विशेषताएँ अच्छी तरह दिखाई भी गई हैं और देखते ही ध्यान में आ भी जाएँगी।
रीतिकाल के भीतर रीतिबद्ध रचना की जो परंपरा चली है उसका उपविभाग करने का कोई संगत आधार मुझे नहीं मिला। रचना के स्वरूप आदि में कोई स्पष्ट भेद निरूपित किए बिना विभाग कैसे किया जा सकता है? किसी कालविस्तार को लेकर यों ही पूर्व और उत्तर नाम देकर दो हिस्से कर डालना ऐतिहासिक विभाग नहीं कहला सकता। जब तक पूर्व और उत्तर के अलग-अलग लक्षण न बताए जाएँगे तब तक इस प्रकार के विभाग का कोई अर्थ नहीं। इसी प्रकार थोड़े-थोड़े अंतर पर होने वाले कुछ प्रसिद्ध कवियों के नाम पर अनेक काल बाँध चलने के पहले यह दिखाना आवश्यक है कि प्रत्येक कालप्रवर्तक कवि का यह प्रभाव उसके काल में होने वाले सब कवियों में सामान्य रूप से पाया जाता है। विभाग का कोई पुष्ट आधार होना चाहिए। रीतिबद्ध ग्रंथों की बहुत गहरी छानबीन और सूक्ष्म पर्यालोचना करने पर आगे चलकर शायद विभाग का कोई आधार मिल जाय, पर अभी तक मुझे नहीं मिला है।
रीतिकाल के संबंध में दो बातें और कहनी हैं। इस काल के कवियों के परिचयात्मक वृत्तों की छानबीन में मैं अधिक नहीं प्रवृत्त हुआ हूँ, क्योंकि मेरा उद्देश्य अपने साहित्य के इतिहास का एक पक्का और व्यवस्थित ढाँचा खड़ा करना था, न कि कवि कीर्तन करना। अतः कवियों के परिचयात्मक विवरण मैंने प्रायः 'मिश्रबंधु विनोद' से ही लिए हैं। कहीं कुछ कवियों के विवरणों में परिवर्तन और परिष्कार भी किया है, जैसे ठाकुर, दीनदयाल गिरि, रामसहाय और रसिक गोविंद के विवरणों में। यदि कुछ कवियों के नाम छूट गए या किसी कवि की किसी मिली हुई पुस्तक का उल्लेख नहीं हुआ, तो इससे मेरी कोई बड़ी उद्देश्य हानि नहीं हुई। इस काल के भीतर मैंने जितने कवि लिए हैं, या जितने ग्रंथों के नाम दिए हैं, उतने ही जरूरत से ज्यादा मालूम हो रहे हैं।
रीतिकाल या और किसी काल के कवियों की साहित्यिक विशेषताओं के संबंध में मैंने जो संक्षिप्त विचार प्रकट किए हैं, वे दिग्दर्शन मात्र के लिए। इतिहास की पुस्तक में किसी कवि की पूरी क्या अधूरी आलोचना भी नहीं आ सकती। किसी कवि की आलोचना लिखनी होगी तो स्वतंत्र प्रबंध या पुस्तक के रूप में लिखूँगा। बहुत प्रसिद्ध कवियों के संबंध में ही थोड़ा विस्तार से लिखना पड़ा है। पर वहाँ भी विशेष प्रवृत्तियों का ही निर्धारण किया गया है। यह अवश्य है कि उनमें से कुछ प्रवृत्तियों को मैंने रसोपयोगी और कुछ को बाधक कहा है।
आधुनिक काल में गद्य का आविर्भाव सबसे प्रधान साहित्यिक घटना है। इसलिए उसके प्रसार का वर्णन विशेष विस्तार के साथ करना पड़ा है। मेरा विचार इस थोड़े-से काल के बीच हमारे साहित्य के भीतर जितनी अनेकरूपता का विकास हुआ है, उनको आरंभ तक लाकर, उसमें आगे की प्रवृत्तियों का सामान्य और संक्षिप्त उल्लेख करके ही छोड़ देने का था क्योंकि वर्तमान लेखकों और कवियों के संबंध में कुछ लिखना अपने सिर एक बला मोल लेना ही समझ पड़ता था। पर जी न माना। वर्तमान सहयोगियों तथा उनकी अमूल्य कृतियों का उल्लेख भी थोड़े-बहुत विवेचन के साथ डरते-डरते किया गया।
वर्तमान काल के अनेक प्रतिभा सम्पन्न और प्रभावशाली लेखकों और कवियों के नाम जल्दी में या भूल से छूट गए होंगे। इसके लिए उनसे तथा उनसे भी अधिक उनकी कृतियों से विशेष रूप से परिचित महानुभावों से क्षमा की प्रार्थना है। जैसा पहले कहा जा चुका है, यह पुस्तक जल्दी में तैयार करनी पड़ी है। इससे इसका रूप जो मैं रखना चाहता था वह भी इसे पूरा नहीं प्राप्त हो सका है। कवियों और लेखकों के नामोल्लेख के संबंध में एक बात का निवेदन और है। इस पुस्तक का उद्देश्य संग्रह नहीं था। इससे आधुनिक काल के अंतर्गत सामान्य लक्षणों और प्रवृत्तियों के वर्णन की ओर ही अधिक ध्यान दिया गया है। अगले संस्करण में इस काल का प्रसार कुछ और अधिक हो सकता है।
कहने की आवश्यकता नहीं कि हिंदी साहित्य का यह इतिहास 'हिंदी शब्दसागर' की भूमिका के रूप में 'हिंदी साहित्य का विकास' के नाम से सन् 1929 के जनवरी महीने में निकल चुका है। इस अलग पुस्तकाकार संस्करण में बहुत-सी बातें बढ़ाई गई हैं विशेषतः आदि और अंत में। 'आदिकाल' के भीतर अपभ्रंश की रचनाएँ भी ले ली गई हैं क्योंकि वे सदा से 'भाषाकाव्य' के अंतर्गत ही मानी जाती रही हैं। कवि परंपरा के बीच प्रचलित जनश्रुति कई ऐसे भाषा काव्यों के नाम गिनाती चली आई है जो अपभ्रंश में हैं जैसे कुमारपालचरित और शारंगधर कृत हम्मीर रासो। 'हम्मीर रासो' का पता नहीं है। पर 'प्राकृत पिंगल सूत्र' उलटते-पलटते मुझे हम्मीर के युध्ों के वर्णनवाले कई बहुत ही ओजस्वी पद्म, छंदों के उदाहरण में मिले। मुझे पूर्ण निश्चय हो गया है कि ये पढ्य शारंगधर के प्रसिद्ध हम्मीर रासो के ही हैं।
आधुनिक काल के अंत में वर्तमान काल की कुछ विशेष प्रवृत्तियों के वर्णन को थोड़ा और पल्लवित इसलिए करना पड़ा, जिससे उन प्रवृत्तियों के मूल का ठीक-ठीक पता केवल हिंदी पढ़ने वालों को भी हो जाय और वे धोखे में न रहकर स्वतंत्र विचार में समर्थ हों।
मिश्रबंधुओं के प्रकांड कविवृत्त-संग्रह 'मिश्रबंधु विनोद' का उल्लेख हो चुका है। 'रीतिकाल' के कवियों का परिचय लिखने में मैंने प्रायः उक्त ग्रंथ से ही विवरण लिए हैं, अतः आधुनिक शिष्टता के अनुसार उसके उत्साही और परिश्रमी संकलनकर्ताओं को धन्यवाद देना मैं बहुत जरूरी समझता हूँ। हिंदी पुस्तकों की खोज की रिपोर्ट भी मुझे समय-समय पर विशेषतः संदेह के स्थल आने पर उलटनी पड़ी हैं। रायसाहब बाबू श्यामसुंदरदास बी. ए. की 'हिंदी कोविद रत्नमाला', श्रीयुत् पं. रामनरेश त्रिपाठी की 'कविता कौमुदी' तथा श्री वियोगी हरिजी के 'ब्रजमाधुरी सार' से भी बहुत कुछ सामग्री मिली है, अतः उक्त तीनों महानुभावों के प्रति मैं अपनी कृतज्ञता प्रकट करता हूँ। 'आधुनिककाल' के प्रारंभिक प्रकरण लिखते समय जिस कठिनता का सामना करना पड़ा, उसमें मेरे बड़े पुराने मित्र पं. केदारनाथ पाठक ही काम आए। पर न आज तक मैंने उन्हें किसी बात के लिए धन्यवाद दिया है, न अब देने की हिम्मत कर सकता हूँ। 'धन्यवाद' को वे 'आजकल की एक बदमाशी' समझते हैं।
इस कार्य में मुझसे जो भूलें हुई हैं उनके सुधार की, जो त्रुटियाँ रह गई हैं उनकी पूर्ति की और जो अपराध बन पड़े उनकी क्षमा की पूरी आशा करके ही मैं अपने श्रम से कुछ संतोष लाभ कर सकता हूँ।
रामचन्द्र शुक्ल
काशी
आषाढ़ शुक्ल 5, 1986

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