हिन्दी साहित्य का इतिहास, रामचंद्र शुक्ल, भाग 03


हिन्दी साहित्य का इतिहास, रामचंद्र शुक्ल, भाग 03 

दोस्तों यहां पर पिछले दो भागों के बाद की जानकारी दी गई है, अगर आप चाहते हैं कि पिछले दो भाग पढ़ें तो निम्नलिखित शीर्षक पर जाए:-
इन्हीं बारह पुस्तकों की दृष्टि से 'आदिकाल' का लक्षण निरूपण और नामकरण हो सकता है। इनमें से अंतिम दो तथा बीसलदेव रासो को छोड़कर शेष सब ग्रंथ वीरगाथात्मक ही हैं। अतः आदिकाल का नाम 'वीरगाथा काल' ही रखा जा सकता है। जिस सामाजिक या राजनैतिक परिस्थिति की प्रेरणा से वीरगाथाओं की प्रवृत्ति रही है उसका सम्यक् निरूपण पुस्तक में कर दिया गया है।

मिश्रबंधुओं ने इस 'आदिकाल' के भीतर इतनी पुस्तकों की और नामावली दी है

1. भगवत गीता

2. वृद्ध नवकार

3. वर्तमाल

4. सहमति

5. पत्तालि

6. अनन्य योग

7. जंबूस्वामी रास

8. रैवतगिरि रास

9. नेमिनाथ चउपई

10. उवएस माला (उपदेशमाला)।

इनमें से नं. 1 तो पीछे की रचना है, जैसा कि उसकी इस भाषा से स्पष्ट है:

तेहि दिन कथा कीन मन लाई। सुमिरौं गुरु गोविंद के पाऊँ। अगम अपार है जाकर नाऊँ हरि के नाम गीत चित आई

जो वीररस की पुरानी परिपाटी के अनुसार कहीं वर्णों का द्वित्व देखकर ही प्राकृत भाषा और कहीं चौपाई देखकर ही अवधी या बैसवाड़ी समझते हैं, जो भाव को 'घाट' और विचार को 'फीलिंग' कहते हैं, वे यदि उध्दृत पयों को संवत् 1000 के क्या संवत् 500 के भी बताएँ तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। पुस्तक की संवत्सूचक पंक्ति का यह गड़बड़ पाठ ही सावधान करने के लिए काफी है 'सहस्र सो संपूरन जाना।'

अब रहीं शेष नौ पुस्तकें। उनमें नं. 2, 7, 9 और 10 जैनधर्म के तत्वनिरूपण पर हैं और साहित्य कोटि में नहीं आ सकीं। नं. 6 योग की पुस्तक है। नं. 3 और नं. 4 केवल नोटिस मात्र हैं, विषयों का कुछ भी विवरण नहीं है। इस प्रकार केवल दो साहित्यिक पुस्तकें बर्ची जो वर्णनात्मक (डेस्क्रिप्टिव) हैं एक में नंद के ज्योनार का वर्णन है, दूसरे में गुजरात के रैवत पर्वत का। अतः इन पुस्तकों की नामावली से मेरे निश्चय में किसी प्रकार का अंतर नहीं पड़ सकता। यदि ये भिन्न-भिन्न प्रकार की नौ पुस्तकें साहित्यिक भी होर्ती, तो भी मेरे नामकरण में कोई बाधा नहीं डाल सकती थी, क्योंकि मैंने नौ प्रसिद्ध वीरगाथात्मक पुस्तकों का उल्लेख किया है।


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