आदिकाल / प्रकरण 2 अपभ्रंश काव्य, रामचंद्र शुक्ल


 

आदिकाल / प्रकरण 2 अपभ्रंश काव्य


जब से प्राकृत बोलचाल की भाषा न रह गई तभी से अपभ्रंश साहित्य का आविर्भाव समझना चाहिए। पहले जैसे 'गाथा' या 'गाहा' कहने से प्राकृत का बोध होता था वैसे ही पीछे 'दोहा' या 'दूहा' कहने से अपभ्रंश या लोकप्रचलित काव्यभाषा का बोध होने लगा। इस पुरानी प्रचलित काव्यभाषा में नीति, श्रृंगार, वीर आदि की कविताएँ तो चली ही आती थीं, जैन और बौद्ध धार्माचार्य अपने मतों की रक्षा और प्रचार के लिए भी इसमें उपदेश आदि की रचना करते थे। प्राकृत से बिगड़कर जो रूप बोलचाल की भाषा ने ग्रहण किया वह भी आगे चलकर कुछ पुराना पड़ गया और काव्य रचना के लिए रूढ़ हो गया। अपभ्रंश नाम उसी समय से चला। जब तक भाषा बोलचाल में थी तब तक वह भाषा या देशभाषा ही कहलाती रही, जबवह भी साहित्य की भाषा हो गई तब उसके लिए अपभ्रंश शब्द का व्यवहार होने लगा।


भरत मुनि (विक्रम तीसरी शताब्दी) ने 'अपभ्रंश' नाम न देकर लोकभाषा को 'देशभाषा' ही कहा है। वररुचि के 'प्राकृतप्रकाश' में भी अपभ्रंश का उल्लेख नहीं है। अपभ्रंश नाम पहले पहल बलभी के राजा धारसेन द्वितीय के शिलालेख में मिलता है, जिसमें उसने अपने पिता गुहसेन (वि. संवत् 650 के पहले) को संस्कृत; प्राकृत और अपभ्रंश तीनों का कवि कहा है। भामह (विक्रम सातवीं शती) ने भी तीनों भाषाओं का उल्लेख किया है। बाण ने 'हर्षचरित' में संस्कृत कवियों के साथ भाषाकवियों का भी उल्लेख किया है। इस प्रकार अपभ्रंश या प्राकृताभास हिन्दी में रचना होने का पता हमें विक्रम की सातवीं शताब्दी में मिलता है। उस काल की रचना के नमूने बौध्दों की वज्रयान शाखा के सिध्दों की कृतियों के बीच मिलते हैं।


संवत् 990 में देवसेन नामक एक जैन ग्रंथकार हुए हैं। उन्होंने भी 'श्रावकाचार' नाम की एक पुस्तक दोहों में बनाई थी, जिसकी भाषा अपभ्रंश का अधिक प्रचलित रूप लिए हुए है, जैसे


जो जिण सासण भाषियउ सो मइ कहियउ सारु।

जो पालइ सइ भाउ करर सो सरर पावइ पारु

इन्हीं देवसेन ने 'दब्ब-सहाव-पयास' (द्रव्य-स्वभाव प्रकाश) नामक एक और ग्रंथ दोहों में बनाया था, जिसका पीछे से माइल्ल धावल ने 'गाथा' या साहित्य की प्राकृत में रूपांतर किया। इसके पीछे तो जैन कवियों की बहुत-सी रचनाएँ मिलती हैं, जैसे श्रुतिपंचमी कथा, योगसार, जसहरचरिउ, णयकुमारचरिउ इत्यादि। ध्यान देने की बात यह है कि चरित्रकाव्य या आख्यान काव्य के लिए अधिकतर चौपाई, दोहे की पद्ध ति ग्रहण की गई है। पुष्पदंत (संवत् 1029) के 'आदिपुराण' और

उत्तरपुराण' चौपाइयों में हैं। उसी काल के आसपास का 'जसहरचरिउ' (यशधार चरित्र) भी चौपाइयों में रचा गया है, जैसे


बिणुधावलेण सयड्डु किं हल्लइ । बिणु जीवेण देहु किं चल्लइ।

बिणु जीवेण मोक्ख को पावड़ । तुम्हारिसु किं अप्पड़ आवइ


चौपाई-दोहे की यह परंपरा हम आगे चलकर सूफियों की प्रेम कहानियों में, तुलसी के रामचरितमानस में तथा छत्राप्रकाश, ब्रजविलास, सबलसिंह चौहान के महाभारत इत्यादि अनेक आख्यान काव्यों में पाते हैं।


बौद्ध धर्म विकृत होकर वज्रयान संप्रदाय के रूप में देश के पूरबी भागों में बहुत दिनों से चला आ रहा था। इन बौद्ध तांत्रिकों के बीच वामाचार अपनी चरम सीमा को पहुँचा। ये बिहार से लेकर आसाम तक फैले थे और सिद्ध कहलाते थे। 'चौरासी सिद्ध' इन्हीं में हुए हैं जिनका परंपरागत स्मरण जनता को अब तक है। इन तांत्रिक योगियों को लोग अलौकिक शक्ति सम्पन्न समझते थे। ये अपनी सिद्धि यों और विभूतियों के लिए प्रसिद्ध थे। राजशेखर ने 'कर्पूरमंजरी' में भैरवानंद के नाम से एक ऐसे ही सिद्ध योगी का समावेश किया है। इस प्रकार जनता पर इन सिद्ध योगियों का प्रभाव विक्रम की दसवीं शताब्दी से ही पाया जाता है, जो मुसलमानों के आने पर पठानों के समय तक कुछ-न-कुछ बना रहा। बिहार के नालंदा और विक्रमशिला नामक प्रसिद्ध विद्यापीठ इनके अड्डे थे। बख्तियार खिलजी ने इन दोनों स्थानों कोजब उजाड़ा तब से ये तितर-बितर हो गए। बहुत-से भोट आदि अन्य देशों को चले गए।


चौरासी सिध्दों के नाम ये हैंलूहिपा, लीलापा, विरूपा, डोंभिपा, शबरीपा, सरहपा, कंकालीपा, मीनपा, गोरक्षपा, चौरंगीपा, वीणापा, शांतिपा, तंतिपा, चमरिपा, खड्गपा, नागार्जुन, कण्हपा, कर्णरिपा, थगनपा, नारोपा, शीलपा, तिलोपा, अजनंगपा छत्रापा, भद्रपा, दोखंधिपा, अजोगिपा, कालपा, धोंभीपा, कंकणपा, कमरिपा, डेंगिपा, भदेपा, तंधोपा, कुक्कुरिपा, कुचिपा, धर्मपा, महीपा, अचिंतिपा, भल्लहपा, नलिनपा, भूसुकुपा, इंद्रभूति, मेकोपा, कुठालिपा, कमरिपा, जालंधारपा, राहुलपा, धर्वरिपा, धोकरिपा, मेदिनीपा, पंकजपा, घंटापा, जोगीपा, चेलुकपा, गुंडरिपा, निर्गुणपा, जयानंत, चर्पटीपा, चंपकपा, भिखनपा, भलिपा, कुमरिपा, चॅवरिपा, मणिभद्रपा (योगिनी), कनखलापा (योगिनी), कलकलपा, कतालीपा, धाहुरिपा, उधारिपा, कपालपा, किलपा, सागरपा, सर्वभक्षपा, नागबोधिपा, दारिकपा, पुतलिपा, पनहपा, कोकालिपा, अनंगपा, लक्ष्मीकरा (योगिनी), समुदपा, भलिपा।

('पा' आदराथयक 'पाद' शब्द है। इस सूची के नाम पूर्वोत्तर कालानुक्रम से नहीं है । इनमें से कई एक समसामयिक थे।)

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